विनम्रता तथा आस्था का चमत्कार

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एक बार बाबा नंद सिंह जी महाराज ने संगत को भगत सदना जी के भावोद्गारों की व्याख्या करते हुए फरमाया-

नृप कंनिआ के कारनै इकु भइआ भेखधारी।
कामारथी सुआरथी वाकी पैज सवारी।।
तव गुन कहा जगत गुरा जउ करमु न नासै।
सिंघ सरन कत जाईऐ जउ जंबुकु ग्रासै।। रहाउ।।
एक बूंद जल कारने चात्रिकु दुखु पावै।
प्रान गए सागरु मिलै फुनि कामि न आवै।।
प्रान जु थाके थिरु नही कैसे बिरमावउ।
बूडि मूए नउका मिलै कहु काहि चढावउ।।
मै नाही कछु हउ नही किछु आहि न मोरा।
अउसर लजा राखि लेहु सधना जनु तोरा।।

एक राजा की पुत्रा के प्रेमपाश में पड़ कर जब एक कामुक और स्वार्थी युवक ने चतुर्भुज (विष्णु) का रूप धारण कर लिया था तो तब भी तुम ने उस स्वार्थी व झूठे मनुष्य की प्रतिष्ठा की रक्षा की थी, क्योंकि उसने तुम्हारा नाम और भेष धारण कर रखा था। हे प्रभु ! तेरी शरण में आने का क्या लाभ यदि हमारे बुरे कर्मों का नाश ही नहीं होता। सिंह की शरण में जाने पर भी यदि गीदड़ खा जाए तो सिंह की शरण किस काम की ? लोक प्रसिद्ध है कि पपीहा स्वाति नक्षत्रा की वर्षा की पहली बूंद (स्वाति बूंद) के लिए तड़पता है लेकिन मृत्यु के बाद यदि उसे स्वाति बूंदों का भंडार भी मिल जाए तो उसके किस काम का? मेरे प्राण निकल रहे हैं, मैं मौत की कगार पर खड़ा हूँ। ऐसी स्थिति में मैं अपने आप को कैसे तसल्ली दे सकता हूँ? हे प्रभु ! मेरे डूब जाने के बाद यदि आपने मुझे बचाने के लिए नौका भेज भी दी तो ऐसी नौका की क्या उपयोगिता ?

मेरा अपना कोई वजूद नहीं है। मैं कुछ नहीं और मेरा कुछ नहीं। हे प्रभु! मैं सिर्फ़ आप का दास हूँ, सिर्फ आप का ही दास हूँ। मेरा उद्धार करो। अपने प्रण की लाज रखो !

भगत सदना जी के पास अनगिनत हिन्दू और मुसलमान सेवक आने लगे थे। वे अल्लाह और राम दोनों के नाम का उपदेश देते थे। उनकी शिकायत हुई और काज़ियों ने उन पर फ़तवा जारी कर दिया कि वह या तो मुसलमान बन जाएं या फिर मौत कबूल करें। इस्लाम धर्म ना स्वीकारने पर उनको जीवित ईंटों में चिनवा देने की सज़ा का आदेश दिया गया। भगत जी ने धर्म-परिवर्तन की अपेक्षा ईंटों में चिने जाने की सज़ा स्वीकार कर ली।

उन पर अनेकों जु़ल्म किए गए। जैसे-जैसे दीवार की ऊँचाई बढ़ती जा रही थी, भगत सदना का कष्ट भी बढ़ता जा रहा था। जब कष्ट असहनीय होने लगा तो उन्होंने परमात्मा के आगे प्रार्थना करनी शुरु कर दी। ज्यों-ज्यों चिनाई बढ़ती जा रही थी, परमात्मा से दया और कृपा करने की याचना भी वैसे ही तीव्र होती जा रही थी। उस समय परमात्मा के समक्ष उनके निष्कलुष हृदय से पीड़ा भरी जो पुकार निकली थी, वही ऊपर दिए गए ‘सबद’ के रूप में गुरु ग्रन्थ साहिब में सुशोभित है।

भगत सदना जी सहायता के लिए ईश्वर से मार्मिक विनती करते हैं और अपने प्रति उन की करुणा जगाने के लिए वे उनकी ईश्वरीय कृपा के अनेक प्रसंगों को तर्क रूप में प्रस्तुत करते हैं। इसी संदर्भ में उन्होंने उस राजकुमारी का प्रसंग दोहराया जिसने चतुर्भुज (विष्णु) से विवाह का निश्चय किया था।

नृप कंनिआ के कारनै इकु भइआ भेखधारी।
कामारथी सुआरथी वाकी पैज सवारी।।
एक धोखेबाज व्यक्ति, चतुर्भुज (विष्णु) का भेष धारण करके राजा के महल में आया तो शर्तानुसार राजकुमारी का विवाह उसके साथ कर दिया गया। एक बार जब उस राज्य पर हमला हुआ तो उस ढोंगी चतुर्भुज ने भय के मारे आत्महत्या कर लेनी चाही तो स्वयं भगवान विष्णु ने प्रकट होकर आक्रमणकारी को पराजित किया तथा उस राज्य की रक्षा की और कपट वेषधारी विष्णु (चतुर्भुज) को आत्महत्या करने से बचा लिया।

भगत सदना जी ने यह तर्क पेश करते हुए जताया कि

हे परमात्मा, तुम तो भेषधारियों की भी मदद करते हो। भगवान विष्णु ने ऐसा कर के अपने नाम और भेष की लाज रखी थी। पर मैं तो तुम्हारा भगत हूँ। कृपा करके मुझ पर अपनी करुणा-दृष्टि डालो और मुझे इस भयानक कष्ट से बचा लो।

भगत जी की अन्तरात्मा से जैसे ही यह दर्दभरी पुकार निकली तो आकाशवाणी हुई-

भगत जी, सभी को अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है। आप भी इस नियम में बंधे हुए हैं। भगत होने के नाते इस चुनौती को साहस से स्वीकार करो।

अपनी प्रार्थना को सही सिद्ध करने के लिए भगत जी ने तुरंत एक और तर्क प्रस्तुत करते हुए कहा कि-

हे ईश्वर! तुम्हारी शरणागति का क्या लाभ यदि यह कर्मफल को ही नष्ट नहीं करती। यदि किसी शेर की शरण में जाने पर भी गीदड़ से खाए जाने का भय बना रहे तो शेर की शरण लेने का क्या लाभ?
तव गुन कहा जगत गुरा जउ करम न नासै।
सिंघ सरन कत जाइए जउ जंबुकु ग्रासे।। रहाओ।।

इस पर परमात्मा की ओर से एक और आकाशवाणी हुई-

भगत जी, मेरे सेवक भय से सदा निर्लेप रहते हैं। धैर्य रखो, आपके बचाव का कोई न कोई साधन जरूर किया जाएगा।

जैसे-जैसे ईंटों का स्तर बढ़ने लगा, सदना जी की सहनशक्ति जवाब देने लगी। इस पर उन्होंने एक और तर्क प्रस्तुत करते हुए कहा कि

चात्रिक (चातक) पक्षी स्वाति-बूँद के लिए तरसता है। यदि प्यासे चातक पक्षी को मौत के बाद स्वाति-बूँदों का सागर भी मिल जाए तो उसका क्या प्रयोजन?
एक बूंद जल कारने चात्रिकु दुखु पावै।
प्रान गए सागरु मिलै फुनि कामि न आवै।।

इस पर फिर एक ईश्वरीय वाणी सुनाई दी-

भगत जी! धैर्य और साहस बनाए रखें। आप मेरे भक्त हैं। इसलिए आपकी रक्षा अवश्य होगी।

जब दीवार सिर तक पहुंचने लगी तो निराश सदना भगत जी ने अपनी रक्षा हेतु एक बार फिर मार्मिक प्रार्थना करते हुए कहा-

प्रान जु थाके थिरु नही कैसे बिरमावउ।
बूडि मूए नउका मिलै कहु काहि चढावउ।।
हे प्रभु ! मेरे प्राण निकल रहे हैं। मैं मृत्यु की कगार पर खड़ा हूँ। ऐसी हालत में मैं अपना धैर्य कैसे बनाए रखूं? मेरे डूब जाने के बाद यदि आप ने नौका भेज भी दी, तो उससे क्या लाभ?

भगत सदना जी ने अचानक अनुभव किया कि अपनी रक्षा के लिए पेश किए गए सभी तर्क व्यर्थ हैं। अन्ततः सभी तर्क-वितर्क भूलकर उनकी अन्तरात्मा से द्रवित करने वाली एक पुकार उठी-

मै नाही कछु हउ नही किछु आहि न मोरा।
अउसर लजा राखि लेहु सधना जनु तोरा।।
मेरा कोई अस्तित्व नहीं। मैं कुछ नहीं, कोई मेरा नहीं। मैं आपको कुछ भी अर्पित नहीं कर सकता। हे प्रभु! मैं सिर्फ आप का हूँ, सि़र्फ आप का ही हूँ। मेरी रक्षा करो! मुझे इस प्राणघाती संकट से उभारो।

उनकी अन्तरात्मा से निकली विनम्र पुकार और विनती में उनकी ‘मैं’ प्रभु-चरणों में विलीन हो गयी। ‘मैं’ मिटते ही ईंटें भरभरा कर फट पड़ी और अत्याचारियों पर जा लगीं। इस अनहोने और आश्चर्यजनक घटना के घटते ही सभी अत्याचारी भगत जी के चरणों में आ गिरे और सभी ओर भगत सदना जी की जय-जयकार होने लगी-

हरिजुगु जुगु भगत उपाइआ
पैज रखदा आइआ राम राजे।।

बाबा नंद सिंह जी महाराज ने संगत को सम्बोधित करते हुए फरमाया कि

सिख, ‘सतगुरु’ के सम्मुख तर्क प्रस्तुत नहीं करता। सिख सतगुरु को अपने हक में पहले के प्रसंग याद नहीं कराता। सिख मिट्टी की मुट्ठी भर है। सिख निरभिमान है, विनम्र है। वह दीन बन कर, सदा झुक कर, गुरु-शरण में पड़ा रहता है। अपनी भक्ति और सेवा का फल कभी नहीं मांगता। सिर्फ़ अपने गुनाहों की माफ़ी माँगता है।

एक बार बाबा नंद सिंह जी महाराज ने एक तपस्वी की साखी सुनाई। जिसने भगवान को प्रसन्न करने के लिए सौ साल की कठिन तपस्या की थी। सौ साल की तपस्या के बाद जब भगवान प्रकट हुए तो उन्होंने तपस्वी से कहा कि- तुमने बड़ी लम्बी और कठिन तपस्या की है। बताओ, क्या कृपा करें! तपस्वी ने हाथ जोड़ कर विनती की- हे गरीबनिवाज़! मैं सौ साल से आप की भक्ति में बैठा हूँ; आप जो फल उचित समझे वही दे दीजिए। इस पर भगवान ने पुनः पूछा- भक्ति का फल चाहिए या मेरी कृपा। तपस्वी ने पुनः फल की ही मांग की। इस पर भगवान ने कहा कि तुम अपनी भक्ति का फल मांग रहे हो परंतु तुम पर तो बहुत कर्ज़ चढ़ा हुआ है। यह सुन कर तपस्वी बहुत हैरान हुआ। भगवान ने आगे कहा कि जिस शिला पर बैठ कर तुमने सौ साल तपस्या की है, उसका ऋण तुम्हारे सिर पर है। अब ऐसा करो कि इस शिला को सिर पर धारण करके सौ साल तपस्या करो। जब इस ऋण से मुक्त हो जाओ तब पुनः तपस्या करके फल की मांग करना। यह सुनकर तपस्वी बहुत घबराया और भगवान के चरणों में गिरकर विनती करने लगा-हे प्रभु! मुझे बख़्श दो, मुझ पर कृपा करो।

बाबा नरिन्दर सिंह जी सब को एक ही विनती करने के लिए कहा करते थे-

गुरु नानक दाता बख़्श लै।
बाबा नानक बख़्श लै।।